अब कही और जाना है
ये जगह अब हमारी नहीं
नए रिवाज बन रहे है अब यहाँ
अब यहाँ हमारा गुजारा नहीं
वो ही अब हमें गैर कि तरह देख रहे
जिन्होंने हमसे चलना सीखा
दिन को ही जब दिखाई नहीं देता
रात अब क्या हमारी होगी
सब कुछ अब तन्हाई में खो रहा है
जो अब तक हंसी से गुलजार था
Sunday, December 26, 2010
Wednesday, December 15, 2010
ख्याल भी तो वक्त के साथ बदलते है
हम भी अपने को बदल रहे है
पर अब भी लगता है पहले की तरह
क्या हम ज़माने को बदल सकते है
मैं अपनी आवाज उठा सकता हूँ
लोग मेरे साथ चले न चले
परवा मुझे नहीं ज़माने की
जमाना अपनी राह चले तो चले
कुछ ने चली अपनी राह हमेशा
कुछ तो है हमेशा जो चले सच के साथ
अब कुछ नए नजरिये हमें बनाने है
नया दौर है नया खून है
नया वक्त हमारा है
ये देश अंगड़ाई ले रहा है
अब हमें भी लोगो को जगाना है
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