Saturday, November 13, 2010

जब हम न होंगे: यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,

जब हम न होंगे: यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,: "कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्..."
प्यार कि बाते कितनी मीठी होती है
पर सच्चाई कितनी कटु होती है

Monday, November 8, 2010

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये।

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।

खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको,
क़ायदे-कानून समझाने लगे हैं।

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है,
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं।

मछलियों में खलबली है, अब सफ़ीने,
उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।

मौलवी से डाँट खाकर अहले मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।

अब नयी तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।

यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं, वहाँ पर क्या हुआ होगा।

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।

कई फ़ाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
ख़ुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।

चलो, अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।


दुष्यंत कुमार कि कविता शायद सब के लिए लिखी गयी है . बार बार पढ़िए , हर बार आपको कुछ नया मिलेगा
'

Wednesday, November 3, 2010

सितम की इंतहा क्या है?

शहीद भगत सिंह कि एक कविता मुझे अचानक कही मिली है . फिर मन में आया कि क्या इसे अपने ब्लॉग में देना सही होगा . पर उस वीर कि आजादी के जज्बे ने मुझ डरपोक में भी ये साहस जगा दिया कि ये कविता सब के लिए है. उस मानुष कि आवाज जो अंग्रेजो को थर्रा सकती थी में आज भी दम है . आज भी जरूरत है इस देश के सोये जवानों को जगाने की . मुझे यह सही सही पता भी नहीं कि ये कविता उन्ही कि है या  नहीं . पर पहली चार पंक्तियों से ही अप मन जायेंगे कि ये उन्ही कि कविता है
उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे रहे न रहे।
 
है ना कुछ बात दोस्तों .  मेरे ब्लॉग के इस प्रविस्ठी का नाम मैंने इसी कविता कि एक लाइन पे रखा है . इस सितम कि इन्तहा क्या है . वाकई इस एक लाइन से ही उस शहीद के जज्बे को सलाम करने का बारम्बार मन होता है . ये चुनौती थी पूरी अंग्रेजी सल्तनत को कि बता तेरे सितम कि इन्तहा क्या है . आ देखे तेरे बाजुओ में दम कितना है .

त्यौहार

अब नई नई बाते सुनता हु मैं
पिछली होली में सुना था कि अब से रंग नहीं खेलना है
अब अबीर होली खेलेंगे
जो बूढ़े अब पानी से नहा नहीं सकते
वो देश को सिखा रहे है कि रंग नहीं खेलना है
तर्क उनका है कि पानी बर्बाद ना करो
अपनी नामर्दी के साये में वे बच्चो से उनकी होली छीन रहे है
जो अपने गमले को सींचने के लिए रोज पानी बर्बाद करते है
वो बच्चो कि एक दिन कि होली को बंद करना चाहते है
अब एक नया नारा है
इको फ्रेंडली दिवाली मनाना है
फटाके नहीं फोड़ने है 
देश में पॉवर प्लांट चलने वाले बच्चो को बता रहे है
कि फटाके से प्रदूषण होता है
राज्योत्सव में दस मिनट में एक हजार किलो बारूद जलाने वाले
कहते है फटाके ना जलाओ
हाँ ये अभियान है एक हमारे संस्कारो को बदलने का
जम के फोड़ो फटाके , जम के खेलो रंग
हमारे है त्यौहार
मनाएंगे हम इन्हें अपने ही ढंग
बूढ़े जो मरने के करीब है , अपनी मौत का इंतज़ार करे
या आये हमारे साथ जवान होने
खेले रंग जम के और छुपा ले अपनी झुर्रियो को
कुछ दिनों के लिए
या कही और जाये अपने कैम्पेन को चलाने के लिए
और भी त्यौहार है दुनिया में
और भी रिवाज है दुनिया में
बदलने के लिए

अंत

कही जाके हर रास्ते ख़त्म हो जाते है
कही जीवन की हर वजह ख़त्म हो जाती है
तेरा क्या है मेरा क्या है
ये दुनिया ही किसी और की हो जाती है
फकत एक पात्र हूँ मैं भी रंगमंच का
तेरी तरह ही मेरे भी संवाद खत्म हो जाते है
कब तक जिए और किसलिए जिए हम
शायद अपने हिस्से की हर बात जी चुके हम
अंतहीन सपने अब भी बरक़रार है
उसी तरह जिस तरह बचपन में थे
पर अब शायद इशारा होने लगा है
सफ़र अब शायद ख़त्म होने लगा है
एक दिन इस वजूद का भी अंत होना है
सच के दामन में दफ़न होना है

Tuesday, November 2, 2010

दुनिया में जो चाहो वो नहीं मिलता
प्यार चाहो प्यार नहीं मिलता
धन चाहो धन नहीं मिलता
पद चाहो पद नहीं मिलता
हद तो तब है जब गम चाहो गम नहीं मिलता
कभी मौत चाहो तो मौत नहीं मिलता