शहीद भगत सिंह कि एक कविता मुझे अचानक कही मिली है . फिर मन में आया कि क्या इसे अपने ब्लॉग में देना सही होगा . पर उस वीर कि आजादी के जज्बे ने मुझ डरपोक में भी ये साहस जगा दिया कि ये कविता सब के लिए है. उस मानुष कि आवाज जो अंग्रेजो को थर्रा सकती थी में आज भी दम है . आज भी जरूरत है इस देश के सोये जवानों को जगाने की . मुझे यह सही सही पता भी नहीं कि ये कविता उन्ही कि है या नहीं . पर पहली चार पंक्तियों से ही अप मन जायेंगे कि ये उन्ही कि कविता है
उसे यह फ़िक्र है हरदम,
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- नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
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- सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे,
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- चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
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- आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
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- ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
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- बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी,
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- ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
- रहे रहे न रहे।
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- है ना कुछ बात दोस्तों . मेरे ब्लॉग के इस प्रविस्ठी का नाम मैंने इसी कविता कि एक लाइन पे रखा है . इस सितम कि इन्तहा क्या है . वाकई इस एक लाइन से ही उस शहीद के जज्बे को सलाम करने का बारम्बार मन होता है . ये चुनौती थी पूरी अंग्रेजी सल्तनत को कि बता तेरे सितम कि इन्तहा क्या है . आ देखे तेरे बाजुओ में दम कितना है .
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